1984: दिल्ली की वो तीन रातें

जब राजधानी की सड़कों पर इंसानियत का कत्ल हुआ।

एक प्रधानमंत्री की हत्या

31 अक्टूबर 1984. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की उनके ही सिख अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर दी गई। यह खबर आग की तरह फैली और इसने देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया। लेकिन इसके बाद जो हुआ, उसकी किसी ने कल्पना भी नहीं की थी।

सड़कों पर उतरा गुस्सा

हत्या की शाम से ही दिल्ली में तनाव बढ़ने लगा। कुछ ही घंटों में, यह गुस्सा एक संगठित हिंसा में बदल गया। सिख समुदाय को खुलेआम निशाना बनाया जाने लगा।

भीड़ का खूनी खेल

यह सिर्फ़ कुछ नाराज़ लोगों का गुस्सा नहीं था। चश्मदीदों के अनुसार, भीड़ें संगठित थीं, उनके पास वोटर लिस्ट और पते थे जिनसे सिख परिवारों की पहचान की जा रही थी। वे लोहे की छड़ों, चाकुओं और केरोसिन से लैस थे।

मूकदर्शक बनी पुलिस

सबसे भयावह बात पुलिस की निष्क्रियता थी। मदद के लिए की गई पुकारें अनसुनी कर दी गईं। कई जगहों पर पुलिसकर्मियों ने या तो आंखें मूंद लीं या दंगाइयों का साथ दिया।

त्रिलोकपुरी का नरसंहार

पूर्वी दिल्ली का त्रिलोकपुरी इलाका सबसे बुरी तरह प्रभावित हुआ। यहाँ सैकड़ों सिखों को उनके घरों से खींचकर बेरहमी से मार डाला गया। गलियाँ लाशों और जलते हुए टायरों से पट गईं।

आँकड़ों के पीछे का दर्द

सरकारी आँकड़ों के अनुसार, अकेले दिल्ली में लगभग 2,800 सिख मारे गए। पूरे भारत में यह संख्या 3,350 से अधिक थी। लेकिन कई मानवाधिकार संगठन इस संख्या को कहीं ज़्यादा बताते हैं।

बचे लोगों की दास्ताँ

जो बच गए, उनकी कहानियाँ दिल दहला देने वाली हैं। उन्होंने अपने परिवार के सदस्यों को अपनी आँखों के सामने जलते और कटते देखा। ये ज़ख्म आज भी उनके दिलों में ताज़ा हैं।

राजनीतिक संरक्षण का आरोप

हिंसा को राजनीतिक संरक्षण मिलने के गंभीर आरोप लगे। कई वरिष्ठ नेताओं पर भीड़ को उकसाने और दंगाइयों को बचाने के आरोप लगे, जिन्होंने दशकों तक न्याय की प्रक्रिया को प्रभावित किया।

'जब बड़ा पेड़ गिरता है...'

तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की एक टिप्पणी ने विवाद को और हवा दे दी। उन्होंने कहा था, 'जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती थोड़ी हिलती है।' इस बयान की पीड़ितों के ज़ख्मों पर नमक छिड़कने के रूप में कड़ी आलोचना हुई।

न्याय का लंबा इंतज़ार

पीड़ितों के लिए न्याय की लड़ाई दशकों तक चली। कई आयोग बने, जाँचें हुईं, लेकिन कुछ बड़े नामों को सज़ा मिलने में 34 साल लग गए। कई आरोपी कभी पकड़े ही नहीं गए।

कभी न भरने वाले ज़ख्म

1984 के दंगे भारतीय लोकतंत्र पर एक काला धब्बा हैं। यह सिर्फ सिखों पर हमला नहीं था, बल्कि भारत के धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने पर हमला था। इसके निशान आज भी समाज में मौजूद हैं।

ताकि हम भूल न जाएँ

इस त्रासदी को याद रखना ज़रूरी है, ताकि इतिहास खुद को न दोहराए। यह हमें सिखाता है कि कैसे राजनीतिक नफ़रत पूरे समुदाय को तबाह कर सकती है। न्याय और सुलह ही आगे बढ़ने का एकमात्र रास्ता है।

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