हमारी थाली की शान, गेहूँ। लेकिन क्या आप इसके प्राचीन और दुर्लभ रूपों को जानते हैं?
हम हर दिन गेहूँ खाते हैं, पर क्या हम उसे सच में जानते हैं? रोटी, ब्रेड और पास्ता से परे, भारत में गेहूँ की एक अनमोल विरासत छिपी है।
यह कोई आम गेहूँ नहीं। सिंधु घाटी सभ्यता के समय से हमारे साथ, खापली (खपली) गेहूँ आज भी उगाया जाता है। इसे 'एम्मर व्हीट' भी कहते हैं और इसका ग्लाइसेमिक इंडेक्स कम होता है।
पैगंबरी गेहूँ का एक नायाब रूप, जिसके दाने सुनहरे मोतियों जैसे दिखते हैं। कहते हैं यह 5,500 साल पुराना है और बिना किसी रासायनिक खाद के अच्छी तरह उगता है।
बंसी और कालीबाल, ये दोनों पारंपरिक ड्यूरम गेहूँ हैं। इनका स्वाद अनोखा है और ये सूजी, दलिया जैसे उत्पादों के लिए बेहतरीन माने जाते हैं।
सूखे में भी शान से उगने वाला यह कठिया गेहूँ बुंदेलखंड की पहचान है। इसमें बीटा-कैरोटीन भरपूर होता है और इसे अपनी खासियतों के लिए GI टैग भी मिला है।
गुजरात का लंबा दाना दौदखानी और मध्य भारत का नरम पिस्सी गेहूँ। पिस्सी इतना खास था कि मशहूर शरबती गेहूँ को विकसित करने के लिए इसका इस्तेमाल किया गया।
चंदौसी, मुंडा पिस्सी, और आगरा लोकल। ये सिर्फ नाम नहीं, बल्कि भारत की कृषि विविधता के प्रतीक हैं जिन्हें सहेजने की ज़रूरत है।
धारवाड़ ड्राई, बीजागा येलो और काला रुयेन। ये स्थानीय किस्में अपने-अपने क्षेत्र की मिट्टी और मौसम में ढली हुई हैं, जो इन्हें खास बनाती हैं।
लाल मिश्री, झुसिया और पहाड़ी गोल गेहूँ। उत्तर भारत के मैदानों से लेकर पहाड़ों तक, ये देसी किस्में भारत की समृद्ध कृषि विरासत को बखूबी दर्शाती हैं।
1960 के दशक की हरित क्रांति ने अधिक उपज देने वाली संकर किस्मों को बढ़ावा दिया। नतीजतन, हमारी कई पारंपरिक किस्में खेतों से धीरे-धीरे गायब हो गईं।
स्वास्थ्य के प्रति जागरूकता और अपनी जड़ों से जुड़ने की चाहत ने इन प्राचीन अनाजों में नई जान फूँक दी है। इनमें पोषक तत्व भरपूर होते हैं और इनका स्वाद भी लाजवाब है।
विशेषज्ञों का मानना है कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने के लिए हमें ऐसी ही विविध किस्मों की ज़रूरत है। ये किस्में भविष्य में हमारी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित कर सकती हैं।
अगली बार जब आप खरीदारी करें, तो इन देसी किस्मों के आटे को खोजें। स्थानीय किसानों का समर्थन करें और भारत की इस अनमोल विरासत को बचाने में मदद करें।
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