वीरप्पन: जंगल का राजा या शैतान?

20 साल, 2 राज्य, 1 डाकू। भारत के सबसे बड़े मैनहंट की अनसुनी कहानी।

एक नाम, हज़ार कहानियाँ

वीरप्पन सिर्फ एक डाकू नहीं था। वह एक पहेली था, खौफ का दूसरा नाम, जिसने भारत के सबसे लंबे और महंगे 'मैनहंट' को जन्म दिया। यह कहानी सिर्फ अपराध की नहीं, बल्कि जंगल, सियासत और इंसानी फितरत की भी है।

शिकार से शुरुआत

कर्नाटक के गोपीनाथम गाँव में जन्मा कूस मुनिस्वामी वीरप्पन, 17 साल की उम्र में एक शिकारी के सहायक के रूप में जंगल में उतरा। उसने हाथी मारना और चंदन की तस्करी करना सीखा। यहीं से उसके खूनी सफर की शुरुआत हुई।

चंदन और हाथी दाँत का साम्राज्य

30 सालों में वीरप्पन ने 2000 से ज़्यादा हाथियों को मार डाला और 10,000 टन चंदन की लकड़ी की तस्करी की। उसकी इस सल्तनत की कीमत आज अरबों में होती। उसने जंगल को अपनी तिजोरी बना लिया था।

रॉबिन हुड: एक मिथक?

कुछ लोग उसे गरीबों का मसीहा मानते थे। वह गाँव वालों को पैसे देता था, लेकिन इसके पीछे का सच क्रूर था। यह मदद नहीं, बल्कि खौफ और चुप्पी खरीदने की एक चाल थी। मुखबिरी करने वालों को वह बेरहमी से मार देता था।

वर्दी पर हमला

वीरप्पन ने 184 से ज़्यादा लोगों की हत्या की, जिनमें आधे से ज़्यादा पुलिस और वन अधिकारी थे। उसका खौफ ऐसा था कि पुलिस भी उसके इलाके में जाने से कांपती थी।

सबसे बड़ा 'मैनहंट'

तमिलनाडु और कर्नाटक ने मिलकर स्पेशल टास्क फोर्स (STF) का गठन किया। इस ऑपरेशन पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च हुए। यह भारत के इतिहास की सबसे लंबी और महंगी तलाशी अभियानों में से एक थी।

पकड़ से बाहर क्यों?

6000 वर्ग किलोमीटर में फैले सत्यमंगलम के जंगल को वह अपनी हथेली की तरह जानता था। स्थानीय लोगों का नेटवर्क और पुलिस की हर हरकत की खबर उसे अजेय बनाती थी।

जब देश थम गया

साल 2000 में, उसने कन्नड़ सुपरस्टार डॉ. राजकुमार को अगवा कर लिया। 108 दिनों तक पूरा देश सांसें थामे रहा। इस एक घटना ने वीरप्पन को अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में ला दिया।

कमजोर होती पकड़

सालों के दबाव, गिरते स्वास्थ्य और घटते गैंग ने वीरप्पन को कमजोर कर दिया था। उसकी आँखों की रोशनी कम हो रही थी और वह इलाज के लिए जंगल से बाहर आने को बेताब था।

ऑपरेशन 'कोकून': आखिरी जाल

STF ने एक गुप्त ऑपरेशन चलाया। एक पुलिसवाले ने भेष बदलकर वीरप्पन का विश्वास जीता और उसे इलाज के लिए एक एम्बुलेंस में जंगल से बाहर आने के लिए मना लिया। यह एक सटीक जाल था।

एक युग का अंत

18 अक्टूबर 2004। STF ने उस एम्बुलेंस को घेर लिया। 20 मिनट की गोलीबारी के बाद, 30 साल से चले आ रहे आतंक के अध्याय का अंत हो गया। वीरप्पन मारा गया।

पीछे क्या छूटा?

वीरप्पन के पीछे छूटा एक तबाह जंगल, हजारों मारे गए हाथी, और उन अनगिनत परिवारों का दर्द जिनकी जिंदगियां उसने बर्बाद कीं। साथ ही, STF द्वारा मानवाधिकार हनन के गंभीर सवाल भी खड़े हुए।

कहानी से सबक

वीरप्पन की कहानी एक चेतावनी है कि कैसे गरीबी, उपेक्षा और सिस्टम की नाकामी एक व्यक्ति को खूंखार अपराधी बना सकती है। यह अपराध और न्याय के बीच की धुंधली रेखा को भी दिखाती है।

जंगल आज भी बोलता है

आज भी सत्यमंगलम के जंगलों में वीरप्पन की किंवदंतियाँ गूँजती हैं। वह एक अपराधी था, लेकिन उसकी कहानी हमें सोचने पर मजबूर करती है - क्या समाज ऐसे और वीरप्पन बनने से रोक सकता है?

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