घृणा नहीं, ये एक पावरफुल इमोशन है। सीखें इसे इस्तेमाल करने की कला।
आज के दौर में, जहाँ सब कुछ पर्फ़ेक्ट दिखता है, असली और कच्ची कहानियाँ ही दिल जीतती हैं। वीभत्स रस आपकी कहानी को वही धार देता है जो उसे भीड़ से अलग करती है।
भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के अनुसार, वीभत्स नौ रसों में से एक है। इसका स्थायी भाव जुगुप्सा, यानी घृणा या घिन है। यह वो एहसास है जो आपको असहज कर दे, लेकिन नज़रें हटाने न दे।
मनोविज्ञान कहता है कि घृणा एक सर्वाइवल इंस्टिंक्ट है। यह हमें ख़तरनाक चीज़ों से दूर रखती है। कहानियों में इसका इस्तेमाल दर्शकों को किरदार के ख़तरे का एहसास कराता है, जिससे कहानी ज़्यादा असरदार लगती है।
सिर्फ़ 'गंदा' मत लिखो। दिखाओ। बदबू कैसी है? दिखने में कैसा है? छूने पर कैसा महसूस होता है? आवाज़ कैसी है? डिटेल्स ही घिन को असली बनाती हैं।
कमरा सीलन और सड़न की गंध से भरा था। दीवारों पर फफूँद के हरे-काले धब्बे थे, जैसे कोई बीमारी फैल रही हो। हर सांस के साथ गले में एक कड़वाहट घुल रही थी।
जब कोई चीज़ लगभग इंसानी हो, पर पूरी तरह नहीं, तो वो एक अजीब सी बेचैनी पैदा करती है। हॉरर फ़िल्मों में इसका खूब इस्तेमाल होता है। यह भी वीभत्स का एक आधुनिक रूप है।
वीभत्स सिर्फ़ फिजिकल नहीं होता। किसी किरदार का घिनौना काम, उसकी सोच या धोखा भी दर्शकों में घृणा पैदा कर सकता है। यह किरदारों को गहराई और एक निगेटिव आर्क देता है।
फ़िल्म 'जोकर' में आर्थर का समाज के प्रति रवैया या 'एनिमल' में रणविजय का टॉक्सिक व्यवहार। ये किरदार हमें असहज करते हैं, और यही उनकी कहानी की कामयाबी है।
एक एडवांस तकनीक: घिन के ठीक बाद कुछ सुंदर दिखाओ। यह कंट्रास्ट वीभत्स के असर को और भी गहरा कर देता है। जैसे किसी युद्ध के मैदान में एक अकेला फूल।
वीभत्स का इस्तेमाल नमक की तरह करो, स्वाद के लिए, पूरी डिश को खारा करने के लिए नहीं। ज़्यादा इस्तेमाल से आपके ऑडियंस कहानी से दूर हो सकते हैं।
घृणा से डरो मत, इसे एक टूल की तरह इस्तेमाल करो। अपनी कहानी को सेफ़ ज़ोन से बाहर निकालो। अपने ऑडियंस को असहज करो, सोचने पर मजबूर करो, और हमेशा के लिए याद रह जाओ।