जब अर्जुन तुम हो, और कुरुक्षेत्र तुम्हारा मन।
क्यों आज लाखों लोग मन के अँधेरे से जूझ रहे हैं? सोशल मीडिया की चमक और असलियत का द्वंद्व, करियर का दबाव, रिश्तों की उलझनें... यह युद्ध आज भी उतना ही प्रासंगिक है।
हे मन, तू क्यों कर्म से विमुख है? जैसे अर्जुन रणभूमि में शस्त्र त्याग बैठा था, क्या तू भी जीवन के युद्ध से भाग रहा है? जान ले, निष्क्रियता भी एक कर्म है, जिसका फल गहरी निराशा है।
यह जो उदासी का घना कोहरा है, इसे अंतिम सत्य मत मान। यह मन का रचा इंद्रजाल है, भावनाओं का चढ़ाव-उतार। दृष्टा बन, देख इसे आते-जाते, जैसे आकाश में बादल तैरते हैं।
विशाल लक्ष्य या दुःख का पहाड़ देख भयभीत मत हो। तेरा अधिकार केवल अपने वर्तमान कर्म पर है, छोटे-छोटे कदमों पर। हर उठाया गया कदम, चाहे कितना ही छोटा क्यों न हो, अंधकार को थोड़ा कम करता ही है।
स्वयं पर इतने कठोर मत बनो, हे जिज्ञासु। महायुद्ध में वीर योद्धा भी घायल होते हैं। अपने मानसिक घावों को स्वीकार करो, उन्हें अनदेखा मत करो। आत्म-करुणा ही उपचार का पहला, सबसे महत्वपूर्ण चरण है।
परिणाम की चिंता तुझे निर्बल और भयभीत करती है। अपना कर्म, अपना प्रयास पूरी निष्ठा से करो, पर परिणाम की आसक्ति से मुक्त हो जा। सुख-दुःख, सफलता-असफलता, ये सब द्वंद्व हैं, इन्हें समभाव से देखना सीखो।
जब सब दिशाएं अंधकारमय लगें, तब अपने 'स्वधर्म' को खोजो। वह छोटा सा कार्य या रिश्ता क्या है जो तुम्हें सचमुच जीवंत महसूस कराता है? अक्सर उसी साधारण चीज़ में तुम्हारे आगे का मार्ग छिपा होता है।
बाहर का शोर और मन की अनगिनत चिंताएं तुम्हें बहरा कर सकती हैं। प्रयास करो उस शांत, स्थिर आंतरिक आवाज़ को सुनने का, जो तुम्हारा सच्चा सारथी है। वह आत्मा की आवाज़ है, जो विवेक और शांति का मार्ग दिखाती है।
स्वीकार्यता का अर्थ हार मान लेना या निष्क्रिय हो जाना नहीं है। इसका सच्चा अर्थ है, वर्तमान क्षण की वास्तविकता को देखना, बिना उससे लड़े। यहीं से स्पष्टता और परिवर्तन की ऊर्जा जन्म लेती है।
तुम्हें लग सकता है कि तुम इस गहन पीड़ा में अकेले हो, पर यह सच नहीं है। देखो, हर इंसान अपने-अपने संघर्षों से जूझ रहा है। करुणा इसी गहरे बोध से उपजती है कि हम सब जुड़े हुए हैं।
आशा कोई निष्क्रिय प्रतीक्षा नहीं कि 'सब ठीक हो जाएगा'। आशा एक सक्रिय चुनाव है - गहन अंधकार और पीड़ा के बावजूद, प्रकाश और बेहतरी की ओर एक कदम बढ़ाने का दृढ़ संकल्प।
कुरुक्षेत्र कहीं बाहर नहीं, तुम्हारे मन के भीतर ही स्थित है। तुम्हारा क्रोध, भय, ईर्ष्या, निराशा - यही कौरव सेना है। तुम्हारा विवेक, धैर्य, प्रेम, साहस - यही पांडव हैं। चुनाव तुम्हारा है, तुम किसका साथ दोगे।
अतीत का बोझ ढोना और भविष्य की अनिश्चित चिंता करना - ये दोनों तुम्हारे वर्तमान की शक्ति को छीन लेते हैं। तुम्हारा असली युद्धक्षेत्र 'अभी' है, इसी क्षण में। यहीं डटे रहो, इसी क्षण में जियो और कर्म करो।
यह आंतरिक संघर्ष शायद जीवन भर चले, पर तुम अकेले नहीं हो। हर दिन एक नई शुरुआत है, अपने भीतर के अर्जुन को जगाने का अवसर। याद रखो, तुम्हारे भीतर अपार शक्ति है।
निराशा के अंधकार से बाहर निकलो। अपने विवेक को सारथी बनाओ और कर्म के शस्त्र उठाओ। जीवन का यह महाभारत तुम्हें पुकार रहा है। उठो, योद्धा!