रामभद्राचार्य vs प्रेमानंद महाराज: जानें रामचरितमानस की चौपाइयां क्या कहती हैं।
हाल ही में, जगद्गुरु रामभद्राचार्य ने प्रेमानंद महाराज पर कुछ टिप्पणियाँ कीं। इन टिप्पणियों ने संत समाज और लाखों भक्तों के बीच एक बड़ी बहस छेड़ दी है। सोशल मीडिया पर भी यह विषय चर्चा का केंद्र बन गया।
लेकिन क्या यह केवल दो सम्मानित संतों के बीच का मतभेद है? या गोस्वामी तुलसीदास ने सदियों पहले ही रामचरितमानस में ऐसे समय की भविष्यवाणी कर दी थी? चलिए, मानस की गहराइयों में उतरते हैं।
रामचरितमानस के उत्तर कांड में काकभुशुण्डि जी गरुड़ को कलियुग के लक्षण बताते हैं। ये चौपाइयां आज के समय में आश्चर्यजनक रूप से प्रासंगिक लगती हैं। वे हमें समाज का एक गहरा आईना दिखाती हैं।
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ। मन क्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ॥ अर्थात, कलियुग में उन लोगों को सम्मान मिलेगा जो दूसरों का अहित करते हैं। जो मन, वचन और कर्म से झूठे हैं, वे ही सबसे बड़े वक्ता कहलाएंगे।
पंडित सोइ जो गाल बजावा। मिथ्यारंभ दंड सो पावा॥ अर्थात, जो केवल बड़ी-बड़ी बातें करता है और डींगें हांकता है, उसी को विद्वान माना जाएगा। ऐसे लोग झूठे आडंबर करके अंत में दंड पाते हैं।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी। कलिजुग सोइ ग्यानी सो बैरागी॥ अर्थात, जो आचरणहीन है और वेदों के दिखाए मार्ग को त्याग चुका है, कलियुग में उसी को ज्ञानी और वैरागी माना जाएगा। यह बात सच्चे और झूठे संतों के बीच के अंतर को दर्शाती है।
श्रुति संमत हरि भक्ति पथ संजुत बिरति बिबेक। तेहि परिहरिहिं बिमोह बस कल्पिहिं पंथ अनेक॥ अर्थात, लोग वेदों द्वारा समर्थित, विवेक और वैराग्य से युक्त भक्ति के मार्ग को छोड़ देंगे। वे मोह में पड़कर अपनी कल्पना से ही अनेक नए पंथ बना लेंगे।
साँच झूठ सब एक करि लेखा। भलें-बुरे कछु समुझि न देखा॥ अर्थात, सच और झूठ को एक जैसा ही माना जाएगा। अच्छे और बुरे में भेद करने की समझ लगभग खत्म हो जाएगी, जिससे भ्रम की स्थिति पैदा होगी।
गुरु सिष बधिर अंध का लेखा। एक न सुनइ एक नहिं देखा॥ हरइ सिष्य धन सोक न हरई। सो गुरु घोर नरक महुँ परई॥ अर्थात, गुरु और शिष्य का संबंध बहरे और अंधे जैसा होगा। गुरु शिष्य का धन तो हर लेगा पर उसका दुःख नहीं। ऐसा गुरु घोर नरक में पड़ता है।
बहु दाम सँवारहिं धाम जती। बिषया हरि लीन्हि न रहि बिरती॥ अर्थात, संन्यासी और यति भी बहुत धन लगाकर अपने घर और आश्रम सजाएंगे। विषयों और भोग-विलास ने उनके वैराग्य को छीन लिया होगा।
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर। देखउँ मैं चरित्र कलिजुग कर॥ आपु गए अरु तिन्हहि घालहिं। जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं॥ अर्थात, ज्ञानी होने का दावा करने वाले कहेंगे कि सब ब्रह्म है, पर खुद माया में लिप्त रहेंगे। वे खुद तो पथभ्रष्ट होंगे ही, और जो कोई सच्चे मार्ग पर चलेगा, उसे भी भटकाएंगे।
यह विवाद किसी एक व्यक्ति या संस्था के बारे में नहीं है। यह उन मानवीय प्रवृत्तियों का प्रतिबिंब है जिनकी चेतावनी तुलसीदास ने सदियों पहले दी थी - चाहे वह अहंकार हो, असहिष्णुता हो या सत्य का अनादर।
रामचरितमानस केवल समस्या नहीं बताता, समाधान भी देता है। तुलसीदास जी कहते हैं - 'कलिजुग केवल नाम अधारा। सुमिरि सुमिरि नर उतरहिं पारा॥' अर्थात, कलियुग में केवल हरि का नाम ही एकमात्र सहारा है, जिसका स्मरण करके मनुष्य भवसागर से पार हो सकता है।
किसी भी संत या गुरु का मूल्यांकन उनके शब्दों से नहीं, बल्कि उनके आचरण, करुणा और समाज पर उनके सकारात्मक प्रभाव से किया जाना चाहिए। भक्तों को व्यक्तिगत विवादों में उलझने के बजाय भक्ति के सार पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
संतों के बीच मतभेद हमें विचलित कर सकते हैं, लेकिन यह हमें आत्म-चिंतन का अवसर भी देते हैं। क्या हम अपने जीवन में सत्य, करुणा और विनम्रता के मार्ग पर चल रहे हैं? असली सवाल यही है।